Friday, 14 February 2014

योग



योग भारत में एक आध्यात्मिक प्रकिया को कहते हैं जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का काम होता है । यह शब्द, प्रक्रिया और धारणा बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बंधित है । योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत्‌ में लोग इससे परिचित हैं । इतनी प्रसिद्धि के बावजूद इसकी परिभाषा सुनिश्चित नहीं है । भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, संन्यासयोग, कर्मयोग । वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग का व्यवहार किया है। पातंजल योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों का भी चर्चा मिलता है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे के विरोधी हैं परंतु इतने विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि योग की परिभाषा करना कठिन काम है। परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योग: कर्मसु कौशलम्‌' कर्मो में कुशलता को योग कहते हैं। स्पष्ट है कि यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं पंतजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध, चित्त की वृत्तियों के निरोध = पूर्णतया रुक जाने का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं। परंतु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्त्त्वि का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्यों का क्या अर्थ होगा: योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो । विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों। संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्या विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।
इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिसपर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है जिसकी रूपरेखा हमको पतंजलि के सूत्रों में मिलती है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं। पतंजलि को कपिलोक्त सांख्यदर्शन ही अभिमत है। थोड़े में, इस दर्शन के अनुसार इस जगत्‌ में असंख्या पुरुष हैं और एक प्रधान या मूल प्रकृति। पुरुष चित्‌ है, प्रधान अचित्‌। पुरुष नित्य है और अपरिवर्तनशील, प्रधान भी नित्य है परंतु परिवर्तनशील। दोनों एक दूसरे से सदा पृथक हैं, परंतु एक प्रकार से एक का दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। पुरुष के सान्निध्य से प्रकृति में परिवर्तन होने लगते हैं। वह क्षुब्ध हो उठती है। पहले उसमें महत्‌ या बुद्धि की उत्पत्ति होती है, फिर अहंकार की, फिर मन की। अहंकार से ज्ञानेंद्रियों और कर्मेद्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं अर्थात्‌ शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध की, अंत में इन पाँचों से आकाश, वायु, तेज, अप और क्षिति नाम के महाभूतों की। इन सबके संयोग वियोग से इस विश्व का खेल हो रहा है। संक्षेप में, यही सृष्टि का क्रम है। प्रकृति में परिवर्तन भले ही हो परंतु पुरुष ज्यों का त्यों रहता है। फिर भी एक बात होती है। जैसे श्वेत स्फटिक के सामने रंग बिरंगे फूलों को लाने से उसपर उनका रंगीन प्रतिबिंब पड़ता है, इसी प्रकार पुरुष पर प्राकृतिक विकृतियों के प्रतिबिंब पड़ते हैं। क्रमश: वह बुद्धि से लेकर क्षिति तक से रंजित प्रतीत होता है, अपने को प्रकृति के इन विकारों से संबद्ध मानने लगता है। आज अपने को धनी, निर्धन, बलवान्‌ दुर्बल, कुटुंबी, सुखी, दु:खी, आदि मान रहा है। अपने शुद्ध रूप से दूर जा पड़ा है। यह उसका भ्रम, अविद्या है। प्रधान से बने हुए इन पदार्थो ने उसके रूप को ढँक रखा है, उसके ऊपर कई तह खोल पड़ गई है। यदि वह इन खोलों, इन आवरणों को दूर फेंक दे तो उसका छुटकारा हो जायगा। जिस क्रम से बँधा है, उसके उलटे क्रम से बंधन टूटेंगे। पहले महाभूतों से ऊपर उठना होगा। अंत में प्रधान की ओर से मुँह फेरना होगा। यह बंधन वास्तविक नहीं है, परंतु बहुत ही दृढ़ प्रतीत होते हैं। जिस उपयोग से बंधनों को तोड़कर पुरुष अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो सके उस उपाय का नाम योग है। सांख्य के आचार्यो का कहना है: यद्वा तद्वा तदुच्छिति: परमपुरुषार्थ:-जैसे भी हो सके पुरुष और प्रधान के इस कृत्रिम संयोग का उच्छेद करना परम पुरुषार्थ हैं। योग का यही दार्शनिक धरातल है: अविद्या के दूर होने पर जो अवस्था होती है उसका वर्णन विभिन्न आचार्यों और विचारकों के विभिन्न ढंग से किया है। अपने अपने विचार के अनुसार उन्होंने उसको पृथक नाम भी दिए हैं। कोई उसे केवल्य कहता है, कोई मोक्ष, कोई निर्वाण। ऊपर पहुँचकर जिसको जैसा अनुभव हो वह उसे उस प्रकार कहे। वस्तुत: वह अवस्था ऐसी हे यतो वाचो निवर्तते अप्राप्य मनसा सह-जहाँ मन ओर वाणी की पहुँच नहीं है। थोड़े से शब्दों में एक और बात का भी चर्चा कर देना आवश्यक है। असंख्य पुरुषों के साथ पतंजलि के पुरुष विशेष नाम से ईश्वर की सत्ता को भी माना है। सांख्या के आचार्य ऐसा नहीं मानते। वस्तुत: मानने की आवश्यकता भी नहीं है। यदि योगदर्शन में से वह थोड़े से सूत्र में कोई अंतर नहीं पड़ता। योग की साधना की दृष्टि से ईश्वर को मानने न मानने का विशेष महत्व नहीं है। ईश्वर की सत्ता को माननेवाले और न मानने वाले, दोनों योग में समान रूप से अधिकार रखते हैं। विद्या और अविद्या, बंधन और उससे छुटकारा, सुख और दु:ख सब चित्त में हैं। अत: जो कोई अपने स्वरूप में स्थिति पाने का इच्छुक है उसको अपने चित्त को उन वस्तुओं से हटाने का प्रयत्न करना होगा, जो हठात्‌ प्रधान और उसके विकारों की ओर खींचती हैं और सुख दु:ख की अनुभूति उत्पन्न करती हैं। इस तरह चित्त को हटाने तथा चित्त के ऐसी वस्तुओं से हट जाने का नाम वैराग्य है। यह योग की पहली सीढ़ी है। पूर्ण वैराग्य एकदम नहीं हुआ करता। ज्यों ज्यों व्यक्ति योग की साधना में प्रवृत्त होता है त्यों त्यों वैराग्य भी बढ़ता है और ज्यों ज्यों वेराग्य बढ़ता है त्यों त्यों साधना में प्रवृत्ति बढ़ती है। जेसा पतंजलि ने कहा है: दृष्ट और अनुश्रविक दोनों प्रकार के विषयों में विरक्ति, गांधी जी के शब्दों में अनासक्ति, होनी चाहिए। स्वर्ग आदि, जिनका ज्ञान हमको अनुश्रुति अर्थात्‌ महात्माओं के वचनों और धर्मग्रंथों से होता है, अनुश्रविक कहलाते हें। योग की साधना को अभ्यास कहते हैं। इधर कई सौ वर्षो से साधुओं में इस आरम्भ में भजन शब्द भी चल पड़ा है। चित्त जब तक इंद्रियों के विषयों की ओर बढ़ता रहेगा, चंचल रहेगा। इंद्रियाँ उसका एक के बाद दूसरी भोग्य वस्तु से संपर्क कराती रहेंगी। कितनों से वियोग भी कराती रहेंगी। काम, क्रोध, लोभ, आदि के उद्दीप्त होने के सैकड़ों अवसर आते रहेंगे। सुखश् दु:ख की निरंतर अनुभूति होती रहेगी। इस प्रकार प्रधान ओर उसके विकारों के साथ जो बंधन अनेक जन्मों से चले आ रहे हैं वे दृढ़ से दृढ़तर होते चले जाएँगे। अत: चित्त को इंद्रियों के विषयों से खींचकर अंतर्मुख करना होगा। इसके अनेक उपाय बताए गए हैं जिनके ब्योरे में जाने की आवश्यकता नहीं है। साधारण मनुष्य के चित्त की अवस्था क्षिप्त कहलाती है। वह एक विषय से दूसरे विषय की ओर फेंका फिरता है। जब उसको प्रयत्न करके किसी एक विषय पर लाया जाता है तब भी वह जल्दी से विषयंतर की ओर चला जाता है। इस अवस्था को विक्षिप्त कहते हैं। दीर्ध प्रयत्न के बाद साधक उसे किसी एक विषय पर देर तक रख सकता है। इस अवस्था का नाम एकाग्र है। चित्त को वशीभूत करना बहुत कठिन काम है। श्रीकृष्ण ने इसे प्रमाथि बलवत्‌-मस्त हाथी के समान बलवान्‌-बताया है। चित्त को वश में करने में एक चीज से सहायता मिलती है। यह साधारण अनुभव की बात है कि जब तक शरीर चंचल रहता है, चित्त चंचल रहता है और चित्त की चंचलता शरीर को चंचल बनाए रहती है। शरीर की चंचलता नाड़ीसंस्थान की चंचलता पर निर्भर करती है। जब तक नाड़ीसंस्थान संक्षुब्ध रहेगा, शरीर पर इंद्रिय ग्राह्य विषयों के आधात होते रहेंगे। उन आधातों का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा जिसके फलस्वरूप चित्त और शरीर दोनों में ही चंचलता बनी रहेगी। चित्त को निश्चल बनाने के लिये योगी वैसा ही उपाय करता है जैसा कभी कभी युद्ध में करना पड़ता है। किसी प्रबल शत्रु से लड़ने में यदि उसके मित्रों को परास्त किया जा सके तो सफलता की संभावना बढ़ जाती है। योगी चित्त पर अधिकार पाने के लिए शरीर और उसमें भी मुख्यत: नाड़ीसंस्थान, को वश में करने का प्रयत्न करता है। शरीर भौतिक है, नाड़ियाँ भी भौतिक हैं। इसलिये इनसे निपटना सहज है। जिस प्रक्रिया से यह बात सिद्ध होती है उसके दो अंग हैं: आसन और प्राणायाम। आसन से शरीर निश्चल बनता है। बहुत से आसनों का अभयास तो स्वास्थ्य की दृष्टि से किया जाता है। पतंजलि ने इतना ही कहा है: स्थिर सुखमासनम्‌: जिसपर देर तक बिना कष्ट के बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। यही सही है कि आसनसिद्धि के लिये स्वास्थ्य संबंधी कुछ नियमों का पालन आवश्यक है। जैसा श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-

युक्ताहार बिहारस्य, युक्त चेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दु:खहा।।

खाने, पीने, सोने, जागने सभी का नियंत्रण करना होता है।

योग का इतिहास

वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों (तपस) के बारे में ((कल | ब्राह्मण))प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई)उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है. कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रर्दशित करती है, सिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है. पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है. यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है.

ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्र्मानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था.

बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे मे कोई ठोस सबूत नहीं मिलता है,बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति कहे कथनॉ में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है. यह संभावित हो भी सकता है, नहीं भी. उपनिषदों में ब्रह्माण्ड संबंधी बयानॉ के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग वेद से पूर्व भी इशारा करते है.
यह बौद्ध ग्रंथ शायद सबसे प्राचीन ग्रंथ है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है. वे ध्यान की प्रथाओं और अवस्थाओं का वर्णन करते है जो बुद्ध से पहले अस्तित्व में थीं और साथ ही उन प्रथाओं का वर्णन करते है जो पहले बौद्ध धर्म के भीतर विकसित हुईं. हिंदु वांग्मय में,"योग" शब्द पहले कथा उपानिषद में प्रस्तुत हुआ जहाँ ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो उच्चतम स्तिथि प्रदान करने वाला मन गया है. महत्वपूर्ण ग्रन्थ जो योग की अवधारणा से सम्बंधित है वे मध्य कालीन उपनिषद्, महाभारत,भगवद गीता 200 BCE) एवं पथांजलि के योग सूत्र है.(ca. 400 BCE)

पतंजलि के योग सूत्र

राज योग और पतञ्जलि योग सूत्रi

भारतीय दर्शन में,षड् दर्शनों में से एक का नाम योग है. योग दार्शनिक प्रणाली,सांख्य स्कूल के साथ निकटता से संबन्धित है. ऋषि पतंजलि द्वारा व्याख्या किया गया योग संप्रदाय सांख्य मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को स्वीकार करते है,लेकिन सांख्य स्कूल के तुलना में अधिक आस्तिक है, यह प्रमाण है क्योंकि सांख्य के वास्तविकता के पच्चीस तत्वों में ईश्वरीय सत्ताओं को जोड़ी गई है. योग और सांख्य एक दुसरे से इतने मिल्झुलते है कि मेक्स म्युल्लर कहते है,"यह दो दर्शन इतने प्रसिद्ध थे कि एक दुसरे का अंतर समझने के लिए एक को प्रभु के साथ और दुसरे को प्रभु के बिना माना जाता है....." सांख्य और योगा के बीच घनिष्ठ संबंध हेंरीच ज़िम्मेर समझाते है: इन दोनों को भारत में जुड़वा के रूप में माना जाता है,जो एक ही विषय के दो पहलू है.Sāṅkhya यहाँ मानव प्रकृति की बुनियादी सैद्धांतिक का प्रदर्शन,विस्तृत विवरण और उसके तत्वों का परिभाषित,बंधन (बंधा) के स्थिति में उनके सहयोग करने के तरीके,सुलझावट के समय अपने स्थिति का विश्लेषण या मुक्ति मे वियोजन ({{2}{IAST|मोक्ष}})का व्याख्या किया गया है.योग विशेष रूप से प्रक्रिया की गतिशीलता के सुलझाव के लिए उपचार करता है और मुक्ति प्राप्त करने की व्यावहारिक तकनीकों को सिद्धांत करता है अथवा 'अलगाव-एकीकरण'(कैवल्य) का उपचार करता है.

पतांजलि, व्यापक रूप से औपचारिक योग दर्शन के संस्थापक मने जाते है. पतांजलि के योग, बुद्धि का नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है,राज योग के रूप में जाना जाता है. पतांजलि उनके दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द का परिभाषित करते है, जो उनके पूरे काम के लिए व्याख्या सूत्र माना जाता है:

योग: चित्त-वृत्ति निरोध: - योग सूत्र 1.2

तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिका है. अई.के.तैम्नी इसकी अनुवाद करते है की,"योग बुद्धि के संशोधनों(vṛtti )का निषेध(nirodha)है" (citta ) योग का प्रारंभिक परिभाषा मे इस शब्द nirodhaḥ का उपयोग एक उदाहरण है कि बौधिक तकनीकी शब्दावली और अवधारणाओं,योग सूत्र मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है; इससे यह संकेत होता है कि बौद्ध विचारों के बारे में पतांजलि को जानकारी थी और अपने प्रणाली मे उन्हें बुनाई.स्वामी विवेकानंद इस सूत्र को अनुवाद करते हुए कहते है,"योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूपों (वृत्ति) लेने से अवरुद्ध करता है.

पतांजलि का लेखन 'अष्टांग योग"("आठ-अंगित योग") एक प्रणाली के लिए आधार बन गया. 29th सूत्र के दूसरी किताब से यह आठ-अंगित अवधारण को प्राप्त किया गया था और व्यावहारिक रूप मे भिन्नरूप से सिखाये गए प्रत्येक राजा योग का एक मुख्य विशेषता है. आठ अंग हैं:

यम (पांच "परिहार"): अहिंसा, झूठ नहीं बोलना,गैर लोभ, गैर विषयासक्ति, और गैर स्वामिगत.
नियम (पांच "धार्मिक क्रिया"): पवित्रता, संतुष्टि, तपस्या, अध्ययन, और भगवान को आत्मसमर्पण.
आसन:मूलार्थक अर्थ "बैठने का आसन", और पतांजलि सूत्र में ध्यान
प्राणायाम ("सांस को स्थगित रखना"): प्राणा ,सांस, "अयामा ", को नियंत्रित करना या बंद करना. साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की गयी है.
प्रत्यहार ("अमूर्त"):बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार.
धारणा ("एकाग्रता"): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना.
ध्यान ("ध्यान"):ध्यान की वस्तु की प्रकृति गहन चिंतन.

समाधि("विमुक्ति"):ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना । इसके दो प्रकार है - सविकल्प और अविकल्प । 
अविकल्प समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती । यह योग पद्धति की चरम अवस्था है ।

इस संप्रदाय के विचार मे,उच्चतम प्राप्ति विश्व के अनुभवी विविधता को भ्रम के रूप मे प्रकट नहीं करता. यह दुनिया वास्तव है. इसके अलावा,उच्चतम प्राप्ति ऐसा घटना है जहाँ अनेक में से एक व्यक्तित्व स्वयं, आत्म को आविष्कार करता है, कोई एक सार्वभौमिक आत्म नहीं है जो सभी व्यक्तियों द्वारा साझा जाता है.

भगवद गीता

भगवद गीता (प्रभु के गीत),बड़े पैमाने पर विभिन्न तरीकों से योग शब्द का उपयोग करता है. एक पूरा अध्याय (छठा अध्याय) सहित पारंपरिक योग का अभ्यास को समर्पित,ध्यान के सहित, करने के अलावा  इस मे योग के तीन प्रमुख प्रकार का परिचय किया जाता है.

कर्म योग: कार्रवाई का योग । इसमें व्यक्ति अपने स्थिति के उचित और कर्तव्यों के अनुसार कर्मों का श्रद्धापूर्वक निर्वाह करता है ।

भक्ति योग: भक्ति का योग । भगवत कीर्तन । इसे भावनात्मक आचरण वाले लोगों को सुझाया जाता है ।

ज्ञाना योग: ज्ञान का योग - ज्ञानार्जन करना । मधुसूदना सरस्वती (जन्म 1490) ने गीता को तीन वर्गों में विभाजित किया है,जहाँ प्रथम छह अध्यायों मे कर्म योग के बारे मे, बीच के छह मे भक्ति योग और पिछले छह अध्यायों मे ज्ञाना(ज्ञान)योग के बारे मे गया है. अन्य टिप्पणीकारों प्रत्येक अध्याय को एक अलग 'योग' से संबंध बताते है, जहाँ अठारह अलग योग का वर्णन किया है.

हठयोग

हठयोग योग, योग की एक विशेष प्रणाली है जिसे 15वीं सदी के भारत में हठ योग प्रदीपिका के संकलक, योगी स्वत्मरमा द्वारा वर्णित किया गया था. हठयोग पतांजलि के राज योग से काफी अलग है जो सत्कर्म पर केन्द्रित है,भौतिक शरीर की शुद्धि ही मन की, प्राण की और विशिष्ट ऊर्जा की शुद्धि लती है. केवल पथांजलि राज योग के ध्यान आसन के बदले यह पूरे शरीर के लोकप्रिय आसनों की चर्चा करता है. हठयोग अपनी कई आधुनिक भिन्नरूपों में एक शैली है जिसे बहुत से लोग "योग" शब्द के साथ जोड़ते है.

अन्य परंपराओं में योग प्रथा

बौद्ध-धर्म

प्राचीन बौद्धिक धर्म ने ध्यानापरणीय अवशोषण अवस्था को निगमित किया. बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों का सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पाया जाता है. बुद्ध के एक प्रमुख नवीन शिक्षण यह था की ध्यानापरणीय अवशोषण को परिपूर्ण अभ्यास से संयुक्त करे. बुद्ध के उपदेश और प्राचीन ब्रह्मनिक ग्रंथों में प्रस्तुत अंतर विचित्र है. बुद्ध के अनुसार, ध्यानापरणीय अवस्था एकमात्र अंत नहीं है,उच्चतम ध्यानापरणीय स्थिती में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता.

अपने विचार के पूर्ण विराम प्राप्त करने के बजाय,किसी प्रकार का मानसिक सक्रियता होना चाहिए:एक मुक्ति अनुभूति, ध्यान जागरूकता के अभ्यास पर आधारित होना चाहिए. बुद्ध ने मौत से मुक्ति पाने की प्राचीन ब्रह्मनिक अभिप्राय को ठुकराया. ब्रह्मिनिक योगिन को एक गैरद्विसंक्य द्रष्टृगत स्थिति जहाँ मृत्यु मे अनुभूति प्राप्त होता है, उस स्थिति को वे मुक्ति मानते है. बुद्ध ने योग के निपुण की मौत पर मुक्ति पाने की पुराने ब्रह्मिनिक अन्योक्त("उत्तेजनाहीन होना,क्षणस्थायी होना")को एक नया अर्थ दिया; उन्हें, ऋषि जो जीवन में मुक्त है के नाम से उल्लेख किया गया था.

योगकारा बौद्धिक धर्म

योगकारा(संस्कृत:"योग का अभ्यास",शब्द विन्यास योगाचारा,दर्शन और मनोविज्ञान का एक संप्रदाय है, जो भारत में 4 वीं से 5 वीं शताब्दी मे विकसित किया गया था. योगकारा को यह नाम प्राप्त हुआ क्योंकि उसने एक योग प्रदान किया,एक रूपरेखा जिससे बोधिसत्त्व तक पहुँचने का एक मार्ग दिखाया है. ज्ञान तक पहुँचने के लिए यह योगकारा संप्रदाय योग सिखाता है.

छ'अन (सिओन/ ज़ेन) बौद्ध धर्म

ज़ेन (जिसका नाम संस्कृत शब्द "ध्याना से" उत्पन्न किया गया चीनी "छ'अन"}के माध्यम से महायान बौद्ध धर्म का एक रूप है. बौद्ध धर्म की महायान संप्रदाय योग के साथ अपनी निकटता के कारण विख्यात किया जाता है. पश्चिम में,जेन को अक्सर योग के साथ व्यवस्थित किया जाता है;ध्यान प्रदर्शन के दो संप्रदायों स्पष्ट परिवारिक उपमान प्रदर्शन करते है.यह घटना को विशेष ध्यान योग्य है क्योंकि कुछ योग प्रथाओं पर ध्यान की ज़ेन बौद्धिक स्कूल आधारित है.योग की कुछ आवश्यक तत्वों सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और विशेष रूप से ज़ेन धर्म को महत्वपूर्ण हैं.

भारत और तिब्बत के बौद्धिक धर्म

योग तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है. न्यिन्गमा परंपरा में,ध्यान का अभ्यास का रास्ता नौ यानों , या वाहन मे विभाजित है,कहा जाता है यह परम व्यूत्पन्न भी है. अंतिम के छह को "योग यानास" के रूप मे वर्णित किया जाता है,यह है:क्रिया योग ,उप योग (चर्या ) ,योगा याना ,महा योग , अनु योग और अंतिम अभ्यास अति योग. सरमा परंपराओं नेमहायोग और अतियोग की अनुत्तारा वर्ग से स्थानापन्न करते हुए क्रिया योग,उपा(चर्या)और योग को शामिल किया हैं. अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल हैं. अन्य तंत्र योग प्रथाओं 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास को शामिल हैं.

यह न्यिन्गमा परंपरा यंत्र योग का अभ्यास भी करते है. (तिब. तरुल खोर ),यह एक अनुशासन है जिसमे सांस कार्य (या प्राणायाम),ध्यानापरणीय मनन और सटीक गतिशील चाल से अनुसरण करनेवाले का ध्यान को एकाग्रित करते है.लुखंग मे दलाई लामा के सम्मर मंदिर के दीवारों पर तिब्बती प्राचीन योगियों के शरीर मुद्राओं चित्रित किया जाया है. चांग (1993)द्वारा एक अर्द्ध तिब्बती योगा के लोकप्रिय खाते ने कन्दली (तिब.तुम्मो )अपने शरीर में गर्मी का उत्पादन का उल्लेख करते हुए कहते है कि "यह संपूर्ण तिब्बती योगा की बुनियाद है". चांग यह भी दावा करते है कि तिब्बती योगा प्राना और मन को सुलह करता है,और उसे तंत्रिस्म के सैद्धांतिक निहितार्थ से संबंधित करते है.

जैन धर्म

दूसरी शताब्दी के सी इ जैन पाठ तत्त्वार्थसूत्र , के अनुसार मन, वाणी और शरीर सभी गतिविधियों का कुल योग है. उमास्वतीकहते है कि अस्रावा या कार्मिक प्रवाह का कारण योग है साथ ही- सम्यक चरित्र - मुक्ति के मार्ग मे यह बेहद आवश्यक है. अपनी नियामसरा में, आचार्य कुंडाकुण्डने योग भक्ति का वर्णन- भक्ति से मुक्ति का मार्ग - भक्ति के सर्वोच्च रूप के रूप मे किया है. आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार पाँच प्रमुख उल्लेख संन्यासियों और 12 समाजिक लघु प्रतिज्ञाओं योग के अंतर्गत शामिल है. इस विचार के वजह से कही इन्दोलोगिस्ट्स जैसे प्रो रॉबर्ट जे ज़्यीडेन्बोस ने जैन धर्म के बारे मे यह कहा कि यह अनिवार्य रूप से योग सोच का एक योजना है जो एक पूर्ण धर्म के रूप मे बढ़ी हो गयी. डॉ. हेंरीच ज़िम्मर संतुष्ट किया कि योग प्रणाली को पूर्व आर्यन का मूल था,जिसने वेदों की सत्ता को स्वीकार नहीं किया और इसलिए जैन धर्म के समान उसे एक विधर्मिक सिद्धांतों के रूप में माना गया था जैन शास्त्र, जैन तीर्थंकरों को ध्यान मे पद्मासना या कयोत्सर्गा योग मुद्रा में दर्शाया है. ऐसा कहा गया है कि महावीर को मुलाबंधासना स्थिति में बैठे केवला ज्ञान "आत्मज्ञान" प्राप्त हुआ जो अचरंगा सूत्र मे और बाद में कल्पसूत्र मे पहली साहित्यिक उल्लेख के रूप मे पाया गया है. पतांजलि योगसूत्र के पांच यामा या बाधाओं और जैन धर्म के पाँच प्रमुख प्रतिज्ञाओं में अलौकिक सादृश्य है,जिससे जैन धर्म का एक मजबूत प्रभाव का संकेत करता है. लेखक विवियन वोर्थिंगटन ने यह स्वीकार किया कि योग दर्शन और जैन धर्म के बीच पारस्परिक प्रभाव है और वे लिखते है:"योग पूरी तरह से जैन धर्म को अपना ऋण मानता है और विनिमय मे जैन धर्म ने योग के साधनाओं को अपने जीवन का एक हिस्सा बना लिया". सिंधु घाटी मुहरों और इकोनोग्रफी भी एक यथोचित साक्ष्य प्रदान करते है कि योग परंपरा और जैन धर्म के बीच संप्रदायिक सदृश अस्तित्व है. विशेष रूप से,विद्वानों और पुरातत्वविदों ने विभिन्न तिर्थन्करों की मुहरों में दर्शाई गई योग और ध्यान मुद्राओं के बीच समानताओं पर टिप्पणी की है: रुषभ की "कयोत्सर्गा"मुद्रा और महावीर के मुलबन्धासन मुहरों के साथ ध्यान मुद्रा में पक्षों में सर्पों की खुदाई पार्श्वनाथ की खुदाई से मिलती जुलती है. यह सभी न केवल सिंधु घाटी सभ्यता और जैन धर्म के बीच कड़ियों का संकेत कर रहे हैं, बल्कि विभिन्न योग प्रथाओं को जैन धर्म का योगदान प्रदर्शन करते है.

जैन सिद्धांत और साहित्य के संदर्भ

प्राचीनतम के जैन धर्मवैधानिक साहित्य जैसे अचरंगासुत्र और नियमासरा, तत्त्वार्थसूत्र आदि जैसे ग्रंथों ने साधारण व्यक्ति और तपस्वीयों के लिए जीवन का एक मार्ग के रूप में योग पर कई संदर्भ दिए है. बाद के ग्रंथों जिसमे योग के जैन अवधारणा सविस्तार है वह निम्नानुसार हैं:

पुज्यपदा (5 वीं शताब्दी सी इ)
इष्टोपदेश
आचार्य हरिभद्र सूरी (8 वीं शताब्दी सी इ)
योगबिंदु
योगद्रिस्तिसमुच्काया
योगसताका
योगविमिसिका
आचार्य जोंदु (8 वीं शताब्दी सी इ)
योगसारा
आचार्य हेमाकान्द्र (11 वीं सदी सी इ)
योगसस्त्र
आचार्य अमितागति (11 वीं सदी सी इ)
योगसराप्रभ्र्ता

इस्लाम

सूफी संगीत के विकास में भारतीय योग अभ्यास का काफी प्रभाव है, जहाँ वे दोनों शारीरिक मुद्राओं(आसन)और श्वास नियंत्रण (प्राणायाम) को अनुकूलित किया है. 11 वीं शताब्दी के प्राचीन समय में प्राचीन भारतीय योग पाठ,अमृतकुंड,("अमृत का कुंड")का अरबी और फारसी भाषाओं में अनुवाद किया गया था. सन 2008 में मलेशिया के शीर्ष इस्लामिक समिति ने कहा जो मुस्लमान योग अभ्यास करते है उनके खिलाफ एक फतवा लगू किया,जो कानूनी तौर पर गैर बाध्यकारी है,कहते है कि योग में "हिंदू आध्यात्मिक उपदेशों" के तत्वों है और इस से ईश-निंदा हो सकती है और इसलिए यहहराम है.
मलेशिया में मुस्लिम योग शिक्षकों ने "अपमान" कहकर इस निर्णय की आलोचना कि. मलेशिया में महिलाओं के समूह,ने भी अपना निराशा व्यक्त की और उन्होंने कहा कि वे अपनी योग कक्षाओं को जारी रखेंगे. इस फतवा में कहा गया है कि शारीरिक व्यायाम के रूप में योग अभ्यास अनुमेय है,पर धार्मिक मंत्र का गाने पर प्रतिबंध लगा दिया है, और यह भी कहते है कि भगवान के साथ मानव का मिलाप जैसे शिक्षण इस्लामी दर्शन के अनुरूप नहीं है.इसी तरह,उलेमस की परिषद, इंडोनेशिया में एक इस्लामी समिति ने योग पर प्रतिबंध,एक फतवे द्वारा लागू किया क्योंकि इसमें "हिंदू तत्व" शामिल थे.किन्तु इन फतवों को दारुल उलूम देओबंद ने आलोचना की है,जो देओबंदी इस्लाम का भारत में शिक्षालय है. सन 2009 मई में,तुर्की के निदेशालय के धार्मिक मामलों के मंत्रालय के प्रधान शासक अली बर्दाकोग्लू ने योग को एक व्यावसायिक उद्यम के रूप में घोषित किया- योग के संबंध में कुछ आलोचनाये जो इसलाम के तत्वों से मेल नहीं खातीं.

ईसाई धर्म

सन 1989 में, वैटिकन ने घोषित किया कि ज़ेन और योग जैसे पूर्वी ध्यान प्रथाओं "शरीर के एक गुट में बदज़ात" हो सकते है.
वैटिकन के बयान के बावजूद, कई रोमन कैथोलिक उनके आध्यात्मिक प्रथाओं में योगा, बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के तत्वों का प्रयोग किया है.

तंत्र

तंत्र एक प्रथा है जिसमें उनके अनुसरण करनेवालों का संबंध साधारण, धार्मिक, सामाजिक और तार्किक वास्तविकता में परिवर्तन ले आते है. तांत्रिक अभ्यास में एक व्यक्ति वास्तविकता को माया, भ्रम के रूप में अनुभव करता है और यह व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होता है. हिन्दू धर्म द्वारा प्रस्तुत किया गया निर्वाण के कई मार्गों में से यह विशेष मार्ग तंत्र को भारतीय धर्मों के प्रथाओं जैसे योग,ध्यान,और सामाजिक संन्यास से जोड़ता है,जो सामाजिक संबंधों और विधियों से अस्थायी या स्थायी वापसी पर आधारित हैं. तांत्रिक प्रथाओं और अध्ययन के दौरान, छात्र को ध्यान तकनीक में, विशेष रूप से चक्र ध्यान,का निर्देश दिया जाता है. जिस तरह यह ध्यान जाना जाता है और तांत्रिक अनुयायियों एवं योगियों के तरीको के साथ तुलना में यह तांत्रिक प्रथाओं एक सीमित रूप में है, लेकिन सूत्रपात के पिछले ध्यान से ज्यादा विस्तृत है. इसे एक प्रकार का कुंडलिनी योग माना जाता है जिसके माध्यम से ध्यान और पूजा के लिए "हृदय" में स्थित चक्र में देवी को स्थापित करते है.

प्राणायाम

प्राणायाम शब्द के संबंध में बहुत भ्रम फैला हुआ है। इस भ्रम का कारण यह है कि आज लोग प्राण शब्द के अर्थ को प्राय: भूल गए हैं। बहुत से ऐसे लोग भी, जो अपने को योगी कहते हैं, इस शब्द के संबंध में भूल करते हैं। योगी को इस बात का प्रयत्न करना होता है कि वह अपने प्राण को सुषुम्ना में ले जाय। सुषुम्ना वह नाड़ी है जो मेरुदंड की नली में स्थित है और मस्त्तिष्क के नीचे तक पहुँचती है। यह कोई गुप्त चीज नहीं है। आखों से देखी जा सकती है। करीब करीब कनष्ठाि उँगली के बराबर मोटी होती है, ठोस है, इसमें कोई छेद नहीं है। प्राण का और साँस या हवा करनेवालों को इस बात का पता नहीं है कि इस नाड़ी में हवा के घुसने के लिये और ऊपर चढ़ने के लिये कोई मार्ग नहीं है। प्राण को हवा का समानार्थक मानकर ही ऐसी बातें कही जाती हैं कि अमुक महात्मा ने अपनी साँस को ब्रह्मांड में चढ़ा लिया। साँस पर नियंत्रण रखने से नाड़ीसंस्थान को स्थिर करने में निश्चय ही सहायता मिलती है, परंतु योगी का मुख्य उद्देश्य प्राण का नियंत्रण है, साँस का नहीं। प्राण वह शक्ति है जो नाड़ीसंस्थान में संचार करती है। शरीर के सभी अवयवों को और सभी धातुओं को प्राण से ही जीवन और सक्रियता मिलती है। जब शरीर के स्थिर होने से ओर प्रणयाम की क्रिया से, प्राण सुषुम्ना की ओर प्रवृत्त होता है तो उसका प्रवाह नीचे की नाड़ियों में से खिंच जाता है। अत: ये नाड़ियाँ बाहर के आधातों की ओर से एक प्रकार से शून्यवत्‌ हो जाती हैं। प्राणयाम का अभ्यास करना और प्राणायाम में सफलता पा जाना दो अलग अलग बातें हैं। परंतु वैराग्य और तीव्र संवेग के बल से सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ज्यों ज्यों अभ्यास दृढ़ होता है, त्यों त्यों साधक के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। एक और बात होती है। वह जितना ही अपने चित्त को इंद्रियों और उनके विषयों से दूर खींचता है उतना ही उसकी ऐंद्रिय शक्ति भी बढ़ती है अर्थात्‌ इंद्रियों की विषयों के भोग की शक्ति भी बढ़ती है। इसीलिये प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का नाम लिया जाता है। प्रत्याहार का अर्थ है इंद्रियों को उनके विषयों से खींचना। वैराग्य के प्रसंग में यह उपदेश दिया जा चुका है परंतु प्राणायम तक पहँचकर इसकों विशेष रूप से दुहराने की आवश्यकता है। आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के ही समुच्चय का नाम हठयोग है। खेद की बात है कि कुछ अभयासी यहीं रुक जाते हैं। जो लोग आगे बढ़ते हैं उनके मार्ग को तीन विभागों में बाँटा जाता है: धारणा, ध्यान और समाधि। इन तीनों को एक दूसरे से बिल्कुल पृथक करना असंभव है। धारण पुष्ट होकर ध्यान का रूप धारण करती है और उन्नत ध्यान ही समाधि कहलाता है। पतंजलि ने तीनों को सम्मिलित रूप से संयम कहा है। धारणा वह उपाय है जिससे चित्त को एकाग्र करने में सहायता मिलती है। यहाँ उपाय शब्द का एकवचन में प्रयोग हुआ है परंतु वस्तुत: इस काम के अनेक उपाय हैं। इनमें से कुछ का चर्चा उपनिषदों में आया है। वैदिक वाड्मय में विद्या शब्द का प्रयोग किया गया है। किसी मंत्र के जप, किसी देव, देवी या महात्मा के विग्रह या सूर्य, अग्नि, दीपशिखा आदि को शरीर के किसी स्थानविशेष जेसे हृदय, मूर्घा, तिल अर्थात दोनों आँखों के बीच के बिंदु, इनमें से किसी जगह कल्पना में स्थिर करना, इस प्रकार के जो भी उपाय किए जायँ वे सभी धारणा के अंतर्गत हैं। जैसा कि कुछ उपायों को बतलाने के बाद पतंजलि ने यह लिख दिया है - यथाभिमत ध्यानाद्वा-जो वस्तु अपने को अच्छी लगे उसपर ही चित्त को एकाग्र करने से काम चल सकता है। किसी पुराण में ऐसी कथा आई है कि अपने गुरु की आज्ञा से किसी अशिक्षित व्यक्ति ने अपनी भैंस के माध्यम से चित्त को एकाग्र करके समाधि प्राप्त की थी। धारणा की सबसे उत्तम पद्धति वह है जिसे पुराने शब्दों में नादानुसंधान कहते हैं। कबीर और उनके परवर्ती संतों ने इसे सुरत शब्द योग की संज्ञा दी है। जिस प्रकार चंचल मृग वीणा के स्वरों से मुग्ध होकर चौकड़ी भरना भूल जाता है, उसी प्रकार साधक का चित्त नाद के प्रभाव से चंचलता छोड़कर स्थिर हो जाता है। वह नाद कौन सा है जिसमें चित्त की वृत्तियों को लय करने का प्रयास किया जाता है और यह प्रयास कैसे किया जाता है, ये बातें तो गुरुमुख से ही जानी जाती हैं। अंतर्नाद के सूक्ष्मत्तम रूप को प्रवल, ओंकार, कहते हैं। प्रणव वस्तुत: अनुच्चार्य्य है। उसका अनुभव किया जा सकता है, वाणी में व्यंजना नहीं, नादविंदूपनिषद् के शब्दों में:

ब्रह्म प्रणव संयानं, नादों ज्योतिर्मय: शिव:। स्वयमाविर्भवेदात्मा मेयापायेऽशुमानिव।।

प्रणव के अनुसंधान से, ज्योतिर्मय और कल्याणकारी नाद उदित होता है। फिर आत्मा स्वयं उसी प्रकार प्रकट होता है, जेसे कि बादल के हटने पर चंद्रमा प्रकट होता है। आदि शब्द आंकार को परमात्मा का प्रतीक कहा जाता है। योगियों में सर्वत्र ही इसकी महिमा गाई गई है। बाइबिल के उस खंड में, जिसे सेंट जान्स गास्पेल कहते हैं, पहला ही वाक्य इस प्रकार हैं, आरंभ में शब्द था। वह शब्द परमात्मा के साथ था। वह शब्द परमात्मा था। सूफी संत कहते हैं हैफ़ दर बंदे जिस्म दरमानी, न शुनवी सौते पाके रहमानी दु:ख की बात है कि तू शरीर के बंधन में पड़ा रहता है और पवित्र दिव्य नाद को नहीं सुनता।
चित्त की एकाग्रता ज्यों ज्यों बढ़ती है त्यों त्यों साधकर को अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं। मनुष्य अपनी इंद्रियों की शक्ति से परिचित नहीं है। उनसे न तो काम लेता है और न लेना चाहता है। यह बात सुनने में आश्चर्य की प्रतीत होती है, पर सच है। मान लीजिए, हमारी चक्षु या श्रोत्र इंद्रिया की शक्ति कल आज से कई गुना बढ़ जाय। तब न जाने ऐसी कितनी वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लगेंगी जिनको देखकर हम काँप उठेंगे। एक दूसरे के भीतर की रासायनिक क्रिया यदि एक बार देख पड़ जाय तो अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति की ओर से घृणा हो जायगी। हमारे परम मित्र पास की कोठरी में बैठे हमारे संबंध में क्या कहते हैं, यदि यह बात सुनने में आ जाय तो जीना दूभर हो जाय। हम कुछ वासनाओं के पुतले हैं। अपनी इंद्रयों से वहीं तक काम लेते हैं जहाँ तक वासनाओं की तृप्ति हो। इसलिये इंद्रियों की शक्ति प्रसुप्त रहती है परंतु जब योगाभ्यास के द्वारा वासनाओं का न्यूनाधिक शमन होता है तब इंद्रियाँ निर्बाध रूप से काम कर सकती हैं और हमको जगत्‌ के स्वरूप के वास्तविक रूप का कुछ परिचय दिलाती हैं। इस विश्व में स्पर्श, रूप, रस और गंध का अपार भंडार भरा पड़ा है जिसकी सत्ता का हमको अनुभव नहीं हैं। अंर्तर्मुख होने पर बिना हमारे प्रयास के ही इंद्रियाँ इस भंडार का द्वार हमारे सामने खोल देती हैं। सुषुम्ना में नाड़ियों की कई ग्रंथियाँ हैं, जिनमें कई जगहों से आई हुई नाड़ियाँ मिलती हैं। इन स्थानों को चक्र कहते हैं। इनमें से विशेष रूप से छह चक्रों का चर्चा योग के ग्रंथों में आता है। सबसे नीचे मुलाधार है जो प्राय: उस जगह पर है जहाँ सुषुम्ना का आरंभ होता है। और सबसे ऊपर आज्ञा चक्र है जो तिल के स्थान पर है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। थोड़ा और ऊपर चलकर सुषुम्ना मस्तिष्क के नाड़िसंस्थान से मिल जाती है। मस्तिष्क के उस सबसे ऊपर के स्थान पर जिसे शरीर विज्ञान में सेरेब्रम कहते हैं, सहस्रारचक्र है। जैसा कि एक महात्मा ने कहा है:

मूलमंत्र करबंद विचारी सात चक्र नव शोधै नारी।।

योगी के प्रारंभिक अनुभवों में से कुछ की ओर ऊपर संकेत किया गया है। ऐसे कुछ अनुभवों का उल्लेख श्वेताश्वर उपनिषद् में भी किया गया है। वहाँ उन्होंने कहा है कि अनल, अनिल, सूर्य, चंद्र, खद्योत, धूम, स्फुलिंग, तारे अभिव्यक्तिकरानि योगे हैंश् यह सब योग में अभिव्यक्त करानेवाले चिह्न हैं अर्थात्‌ इनके द्वारा योगी को यह विश्वास हो सकता है कि मैं ठीक मार्ग पर चल रहा हूँ। इसके ऊपर समाधि तक पहुँचते पहुँचते योगी को जो अनुभव होते हैं उनका वर्णन करना असंभव है। कारण यह है कि उनका वर्णन करने के लिये साधारण मनुष्य को साधारण भाषा में कोई प्रतीक या शब्द नहीं मिलता। अच्छे योगियों ने उनके वर्णन के संबंध में कहा है कि यह काम वैसा ही है जैसे गूँगा गुड़ खाय। पूर्णांग मनुष्य भी किसी वस्तु के स्वाद का शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता, फिर गूँगा बेचारा तो असमर्थ है ही। गुड़ के स्वाद का कुछ परिचय फलों के स्वाद से या किसी अन्य मीठी चीज़ के सादृश्य के आधार पर दिया भी जा सकता है, पर जैसा अनुभव हमको साधारणत: होता ही नहीं, वह तो सचमुच वाणी के परे हैं। समाधि की सर्वोच्च भूमिका के कुछ नीचे तक अस्मिता रह जाती है। अपनी पृथक सत्ता अहम्‌ अस्मि (मैं हूँ ) यह प्रतीति रहती है। अहम्‌ अस्मि = मैं हूँ की संतान अर्थात निरंतर इस भावना के कारण वहाँ तक काल की सत्ता है। इसके बाद झीनी अविद्या मात्र रह जाती है। उसके शय होने की अवस्था का नाम असंप्रज्ञात समाधि है जिसमें अविद्या का भी क्षय हो जाता है और प्रधान से कल्पित संबंध का विच्छेद हो जाता है। यह योग की पराकाष्ठा है। इसके आगे फिर शास्त्रार्थ का द्वार खुल जाता है। सांख्य के आचार्य कहते हैं कि जो योगी पुरुष यहाँ तक पहुँचा, उसके लिये फिर तो प्रकृति का खेल बंद हो जाता है। दूसरे लोगों के लिये जारी रहता है। वह इस बात को यों समझाते हैं। किसी जगह नृत्य हो रहा है। कई व्यक्ति उसे देख रहे हैं। एक व्यक्ति उनमें ऐसा भी है जिसको उस नृत्य में कोई अभिरुचि नहीं है। वह नर्तकी की ओर से आँख फेर लेता है। उसके लिये नृत्य नहीं के बराबर है। दूसरे के लिये वह रोचक है। उन्होंने कहा है कि उस अजा के साथ अर्थात नित्या के साथ अज एकोऽनुशेते = एक अज शयन करता है और जहात्येनाम्‌ भुक्तभोगाम्‌ तथान्य:-उसके भोग से तृप्त होकर दूसरा त्याग देता है। अद्वैत वेदांत के आचार्य सांख्यसंमत पुरुषों की अनेकता को स्वीकार नहीं करते। उनके अतिरिक्त और भी कई दार्श्निक संप्रदाय हैं जिनके अपने अलग अलग सिद्धांत हैं। पहले कहा जा चुका हैं कि इस शास्त्रार्थ में यहां पड़ने की आवश्यकता नहीं हैं। जहां तक योग के व्यवहारिक रूप की बात है उसमें किसी को विरोध नहीं है। वेदांत के आचार्य भी निर्दिध्यासन की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं और वेदांत दर्शन में व्यास ने भी असकृदभ्यासात्‌ ओर आसीन: संभवात्‌ जैसे सूत्रों में इसका समर्थन किया है। इतना ही हमारे लिये पर्याप्त है। साधारणत: योग को अष्टांग कहा जाता है परंतु यहाँ अब तक आसन से लेकर समाधि तक छह अंगों का ही उल्लेख किया गया है। शेष दो अंगों को इसलिये नहीं छोड़ा कि वे अनावश्यक हैं वरन्‌ इसलिए कि वह योगी ही नहीं प्रत्युत मनुष्य मात्र के लिए परम उपयोगी हैं। उनमें प्रथम स्थान यम का है। इनके संबंध में कहा गया है कि यह देश काल, समय से अनवच्छिन्न ओर सार्वभौम महाब्रत हैं अर्थात्‌ प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक समय और प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के साथ इनका पालन करना चाहिए। दूसरा अंग नियम कहलाता है। जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते उनके लिये ईश्वर पर निष्ठा रखने का कोई और नहीं है। परंतु वह लोग भी प्राय: किसी न किसी ऐसे व्यक्ति पर श्रद्धा रखते हैं जो उनके लिये ईश्वर तुल्य है। बौद्ध को बुद्धदेव के प्रति जो निष्ठा है वह उससे कम नहीं है जो किसी भी ईश्वरवादी को ईश्वर पर होती होगी। एक और बात है। किसी को ईश्वर पर श्रद्धा हो या न हो, योग मार्ग के उपदेष्टा गुरु पर तो अनन्य श्रद्धा होनी ही चाहिए। योगाभ्यासी के लिये गुरु का स्थान किसी भी दृष्टि से ईश्वर से कम नहीं। ईश्वर हो या न हो परंतु गुरु के होने पर तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता। एक साधक चरणादास जी की शिष्या सहजोबाई ने कहा है:

गुरुचरनन पर तन-मन वारूँ, गुरु न तजूँ हरि को तज डारूँ।

आज कल यह बात सुनने में आती है कि परम पुरुषार्थ प्राप्त करने के लिये ज्ञान पर्याप्त है। योग की आवश्यकता नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं, वह ज्ञान शब्द के अर्थ पर गंभीरता से विचार नहीं करते। ज्ञान दो प्रकार का होता है-तज्ज्ञान और तद्विषयक ज्ञान। दोनों में अंतर है। कोई व्यक्ति अपना सारा जीवन रसायन आदि शास्त्रों के अध्ययन में बिताकर शक्कर के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकता है। शक्कर के अणु में किन किन रासायनिक तत्वों के कितने कितने परमाणु होते हैं? शक्कर कैसे बनाई जाती है? उसपर कौन कौन सी रासानिक क्रिया और प्रतिक्रियाएँ होती हैं? इत्यादि। यह सब शक्कर विषयक ज्ञान है। यह भी उपयोगी हो सकता है परंतु शक्कर का वास्तविक ज्ञान तो उसी समय होता है जब एक चुटकी शक्कर मुँह में रखी जाती है। यह शक्कर का तत्वज्ञान है। शास्त्रों के अध्ययन से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान है और उसके प्रकाश में तद्विषयक ज्ञान भी पूरी तरह समझ में आ सकता हैं। इसीलिये उपनिषद् के अनुसार जब यम ने नचिकेता को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दिया तो उसके साथ में योगविधि च कृत्स्नम्‌ की भी दीक्षा दी, नहीं तो नचिकेता का बोध अधूरा ही रह जाता। जो लोग भक्ति आदि की साधना रूप से प्रशंसा करते हैं उनकोश् भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि यदि उनके मार्ग में वित्त को एकाग्र करने का कोई उपाय है तो वह वस्तुत: योग की धारणा अंग के अंतर्गत है। यह उनकी मर्जी है कि सनातन योग शब्द को छोड़कर नये शब्दों का व्यवहार करते हैं। योग के अभ्यास से उस प्रकार की शक्तियों का उदय होता है जिनको विभूति या सिद्धि कहते हैं। यदि पर्याप्त समय तक अभ्यास करने के बाद भी किसी मनुष्य में ऐसी असाधारण शक्तियों का आगम नहीं हुआ तो यह मानना चाहिए कि वह ठीक मार्ग पर नहीं चल रहा है। परंतु सिद्धियों में कोई जादू की बात नहीं है। इंद्रियों की शक्ति बहुत अधिक है परंतु साधारणत: हमको उसका ज्ञान नहीं होता और न हम उससे काम लेते हैं। अभयासी को उस शक्ति का परिचय मिलता है, उसको जगत्‌ के स्वरूप के संबंध में ऐसे अनुभव होते हैं जो दूसरों को प्राप्त नहीं हैं। दूर की या छिपी हुई वस्तु को देख लेना, व्यवहृत बातों को सुन लेना इत्यादि इंद्रियों की सहज शक्ति की सीमा के भीतर की बाते हैं परंतु साधारण मनुष्य के लिये यह आश्चर्यश् का विषय हैं, इनकों सिद्धि कहा जायगा। इसी प्रकार मनुष्य में और भी बहुत सी शक्तियाँ हें जो साधरण अवस्था में प्रसुप्त रहती हैं। योग के अभयास से जाग उठती हैं। यदि हम किसी सड़क पर कहीं जा रहे हो तो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए भी अनायास ही दाहिने बाएँ उपस्थित विषयों को देख लेंगे। सच तो यह है कि जो कोई इन विषयों को देखने के लिये रुकेगा वह गन्तव्य स्थान तक पहुँचेगा ही नहीं ओर बीच में ही रह जायगा। इसीलिये कहा गया है कि जो कोई सिद्धियों के लिये प्रयत्न करता है वह अपने को समाधि से वंचित करता है। पतंजलि ने कहा है:

ते समाधावुपसर्गाव्युत्थाने सिद्धय: 
अर्थात्‌ ये विभूतियाँ समाधि में बाधक हैं परंतु समाधि से उठने की अवस्था में सिद्धि कहलाती हैं।

योग का लक्ष्य

योग का लक्ष्य स्वास्थ्य में सुधार से लेकर मोक्श प्राप्त करने तक है. जैन धर्म,अद्वैत वेदांत के मोनिस्ट संप्रदाय और शैवत्व के अन्तर में योग का लक्ष्य मोक्श का रूप लेता है,जो सभी सांसारिक कष्ट एवं जन्म और मृत्यु के चक्र (संसार) से मुक्ति प्राप्त करना है,उस क्षण में परम ब्रह्मण के साथ समरूपता का एक एहसास है.

महाभारत में,योग का लक्ष्य ब्रह्मा के दुनिया में प्रवेश के रूप में वर्णित किया गया है,ब्रह्मण के रूप में,अथवा ब्रह्मण या आत्मन को अनुभव करते हुए जो सभी वस्तुएँ मे व्याप्त है.भक्ति संप्रदाय के वैष्णवत्व को योग का अंतिम लक्ष्य स्वयं भगवन का सेवा करना या उनके प्रति भक्ति होना है, जहां लक्ष्य यह है की विष्णु के साथ एक शाश्वत रिश्ते का आनंद लेना.

कुंडलिनी



कुंडलिनी (संस्कृत कुंडलिनी, कुण्डलिनी, इस ध्वनि के बारे में उच्चारण ( मदद · जानकारी )) की वजह से उपजी योग स्त्री के रूप में दर्शन शक्ति या "मूर्त ऊर्जा".  कुंडलिनी को शुद्ध करने के क्रम में जागृत किया जा सकता है कि एक निबाह आध्यात्मिक ऊर्जा के रूप में पूर्वी धार्मिक या आध्यात्मिक, परंपरा के भीतर वर्णित है सूक्ष्म प्रणाली और अंततः सच्चाई की 'साधक' पर, योग के राज्य, या परमात्मा संघ प्रदान करने के लिए ".  योग उपनिषद के रूप में प्रतिनिधित्व, रीढ़ के आधार पर "coiled झूठ बोल के रूप कुंडलिनी का वर्णन" एक देवी या सो नागिन या तो जागृत होने की प्रतीक्षा. आधुनिक टीकाओं में, कुंडलिनी एक बेहोश सहज या बुलाया गया है libidinal बल.  यह गहरे ध्यान, ज्ञान और आनंद में कुंडलिनी जागरण का परिणाम है. सूचना दी है कि  इस जागरण कुंडलिनी शारीरिक रूप से सिर के ऊपर सहस्रार चक्र के भीतर निवास करने के लिए केंद्रीय चैनल जा शामिल है. कुंडलिनी के इस आंदोलन को एक शांत या, असंतुलन के मामले में, हाथ या पैर के तलवों की हथेलियों भर में एक गर्म हवा. की उपस्थिति ने महसूस किया है  कई प्रणालियों के माध्यम से कुंडलिनी की जागृति पर योग ध्यान के ध्यान , प्राणायाम श्वास, का अभ्यास आसन और के जप मंत्र .  शारीरिक संदर्भ में, एक अधिक बताया कुंडलिनी अनुभव रीढ़ साथ विद्युत प्रवाह चलाने की तरह एक महसूस कर रही है.  कुछ शिक्षाविदों शब्द "गढ़ा है कुंडलिनी सिंड्रोम पारंपरिक रूप से कुंडलिनी जागरण के साथ जुड़े अनुभवों से उत्पन्न होने वाले शारीरिक या मानसिक समस्याओं का उल्लेख करने के लिए ".

व्युत्पत्ति

संस्कृत विशेषण kuṇḍalin "परिपत्र, कुंडलाकार" का मतलब है. यह ("coiled" अर्थ में "के गठन ringlets" के रूप में) "एक साँप" के लिए एक संज्ञा के रूप में 12 वीं सदी में होती है Rajatarangini क्रॉनिकल (I.2). कुंदा, जिसका अर्थ है 'कटोरा, पानी के साथ एक संज्ञा पॉट "एक का नाम के रूप में पाया जाता है नगा में महाभारत 1.4828. 8 वीं सदी Tantrasadbhava तंत्र अवधि कुण्डली ("अंगूठी, कंगन, एक रस्सी के तार ()") का उपयोग करता है.  [ स्पष्टीकरण की जरूरत ]
के नाम के रूप में कुण्डली का प्रयोग दुर्गा या एक की शक्ति में एक तकनीकी शब्द के रूप में प्रकट होता है तांत्रिक और Shaktism के रूप में जल्दी सी के रूप में. 11 वीं सदी, Śaradatilaka में.  इसे में एक तकनीकी शब्द के रूप में kuṇḍalniī के रूप में अपनाया है हठ योग 15 वीं सदी में और व्यापक रूप में इस्तेमाल किया जाता है योग उपनिषद 16 वीं सदी से. एकनाथ Easwaran कुंडलित "के रूप में कार्यकाल paraphrased गया है शक्ति, "एक नागिन की तरह वहाँ coiled" आमतौर पर रीढ़ के आधार पर टिकी हुई है, जो एक शक्ति है, के रूप में वर्णित ".  वाक्यांश नागिन शक्ति द्वारा गढ़ा गया था सर जॉन वूडरोफ दो 16 वीं सदी ग्रंथ अपने अनुवाद प्रकाशित जो, लाया योग (पर कुंडलिनी योग इस शीर्षक के तहत 1919 में).

विवरण

कुंडलिनी मानव जीव में एक नींद, निष्क्रिय संभावित शक्ति के रूप में वर्णन किया गया है.  यह "का एक गूढ़ विवरण के घटकों में से एक है सूक्ष्म शरीर के होते हैं जो ", नाड़ियाँ (ऊर्जा चैनल), चक्रों (मानसिक केन्द्रों), प्राण (सूक्ष्म ऊर्जा), और बिंदु (सार की बूँदें). कुंडलिनी रीढ़ के आधार पर coiled किया जा रहा है के रूप में वर्णित है. स्थान के विवरण मलाशय से नाभि तक, थोड़ा भिन्न हो सकते हैं.  कुंडलिनी त्रिकोणीय आकार में निवास करने के लिए कहा जाता है कि त्रिकास्थि साढ़े तीन coils में हड्डी.  कुंडलिनी द्वारा "शुद्ध इच्छा के एक अवशिष्ट शक्ति 'के रूप में वर्णित किया गया है निर्मला श्रीवास्तव .  दिए छवि की एक नागिन एक रंगीन ग्रे लगभग तीन और एक आधा बार coiled कि है लिंगम . प्रत्येक कुंडल तीन में से एक का प्रतिनिधित्व करने के लिए कहा जाता है कि गुणों आधा कुंडल अतिक्रमण वाचक के साथ,.

कुंडलिनी जागरण

कुंडलिनी द्वारा जागृत किया जा सकता है Shaktipat एक गुरु या द्वारा शिक्षक या ऐसे योग या ध्यान के रूप में साधना के द्वारा आध्यात्मिक संचरण. कभी कभी कुंडलिनी कथित शारीरिक या मानसिक आघात के परिणाम के रूप में, या और भी कोई स्पष्ट कारण के लिए अनायास जागता है. जागा, जब कुंडलिनी से ऊपर वृद्धि करने के लिए कहा जाता है कि मूलाधार चक्र सेंट्रल के माध्यम से नदी कहा जाता है, सुषुम्ना के अंदर या बगल में रीढ़ की हड्डी और सिर के ऊपर तक पहुंच गया. विभिन्न माध्यम से कुंडलिनी की प्रगति चक्रों कुंडलिनी अंत में सिर के ऊपर तक है, जब तक जागृति और रहस्यमय अनुभव के विभिन्न स्तरों की ओर जाता है सहस्रार या मुकुट चक्र एक अत्यंत गहरा रहस्यमय अनुभव का निर्माण,.

कई खातों कुंडलिनी के अनुभव का वर्णन.

रमण महर्षि कुंडलिनी स्वयं सार्वभौमिक चेतना (जहां स्वयं के प्राकृतिक ऊर्जा लेकिन कुछ भी नहीं है उल्लेख किया है कि परमात्मा हर जीव में उपस्थित), और विचारों के कपड़े चापलूसी अभिव्यक्ति से इस प्राकृतिक ऊर्जा के व्यक्ति मन. कि अद्वैत सिखाता आत्म - बोध , ज्ञान , भगवान चेतना , और निर्वाण . लेकिन, प्रारंभिक कुंडलिनी जागरण सिर्फ वास्तविक आध्यात्मिक अनुभव की शुरुआत है. स्व जांच ध्यान इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए एक बहुत ही स्वाभाविक और सरल साधन माना जाता है.  स्वामी विवेकानंद में संक्षेप में कुंडलिनी वर्णित लंदन पर अपने व्याख्यान के दौरान राजा योग इस प्रकार है: के अनुसार योगियों , दो पिंगला और आईडीए बुलाया स्पाइनल कॉलम में तंत्रिका धाराओं, और कहा जाता है एक खोखले नहर वहाँ सुषुम्ना रीढ़ की हड्डी के माध्यम से चल रहा है. खोखले नहर के निचले सिरे पर योगियों "कुंडलिनी के कमल" कहते हैं. वे जो में, योगियों की प्रतीकात्मक भाषा में, कुंडलिनी कहा जाता है एक शक्ति है के रूप में त्रिकोणीय के रूप में वर्णन, ऊपर coiled. कि कुंडलिनी जागता है, जब वह इस खोखले नहर के माध्यम से एक मार्ग के लिए मजबूर करने की कोशिश करता है, और यह थे कि यह कदम से कदम के रूप में उगता, मन के बाद एक परत खुला हो जाता है और सभी अलग दृष्टि और अद्भुत शक्तियों योगी के लिए आते हैं. यह मस्तिष्क में पहुँचता है, योगी पूरी तरह से शरीर और मन से अलग है, आत्मा ही मुक्त पाता है. हम रीढ़ की हड्डी में एक अजीब तरह से बना है कि पता है. हम चित्रा ले आठ क्षैतिज (∞) बीच में जुड़े हुए हैं जो दो हिस्से हैं. आप रीढ़ की हड्डी का प्रतिनिधित्व करेंगे, दूसरे के ऊपर एक ढेर, आठ के बाद आठ जोड़ मान लीजिए. बाईं आईडीए, सही पिंगला है, और रीढ़ की हड्डी के केंद्र के माध्यम से चलाता है जो खोखले नहर सुषुम्ना है कि. रीढ़ की हड्डी में से कुछ में समाप्त होता है काठ कशेरुकाओं नीचे की तरफ, एक ठीक फाइबर मुद्दों, और नहर, यहां तक कि फाइबर के भीतर ही बहुत महीन को चलाता है. नहर आधुनिक शरीर विज्ञान के अनुसार, प्रपत्र में त्रिकोणीय है, जो त्रिक जाल, क्या कहा जाता है के पास स्थित है, जो निचले अंत में बंद कर दिया है. स्पाइनल कैनाल में उनके केन्द्रों है कि विभिन्न चक्रों बहुत अच्छी तरह से. योगी के विभिन्न "कमल" के लिए खड़े हो सकते हैं  कुंडलिनी जब शक्ति एक देवी के रूप में कल्पना की है कि यह सिर में उगता है, फिर, यह सुप्रीम होने के नाते (साथ ही एकजुट भगवान शिव ). फिर आकांक्षी गहरे ध्यान और अनंत आनंद में तल्लीन हो जाता है  परमहंस योगानंद अर्जुन से अपनी पुस्तक भगवान वार्ता में: गीता राज्यों: गहरे ध्यान में योगी के आदेश पर, इस रचनात्मक शक्ति आवक बदल जाता है और दिव्य शक्तियों और आत्मा और आत्मा की चेतना के देदीप्यमान भीतरी दुनिया खुलासा, सहस्रदल में वापस अपने स्रोत से बहती है. योग इस शक्ति जागृत कुंडलिनी के रूप में आत्मा के मूलाधार से बहने को दर्शाता है.  और योगी आवक एक गुप्त सूक्ष्म बीतने, मूलाधार जाल में कुंडलिनी की कुंडलित तरह के माध्यम से बुद्धि, मन और जीवन शक्ति की सर्चलाइटों पराजयों, और ऊपर त्रिक के माध्यम से, काठ, और उच्च पृष्ठीय, गर्भाशय ग्रीवा, और दिमाग़ी चक्रों, और भौंहों के बीच बिंदु पर आध्यात्मिक आंख, मस्तिष्क में उच्चतम केंद्र (सहस्रार) में अंत में आत्मा की उपस्थिति प्रकट करने के लिए.  योगा जर्नल में कुंडलिनी पर अपने लेख में, डेविड ईस्टमैन दो व्यक्तिगत अनुभव सुनाते हैं. एक आदमी तो वह आराम और ऐसा होने की अनुमति दी वह प्रवाह के लिए शुरू उसकी रीढ़ के आधार पर एक गतिविधि महसूस किया. ऊर्जा की बढ़ती भावना हर चक्र में वह आग की शुरुआत उसकी रीढ़ की हड्डी पर हर तंत्रिका ट्रंक की तरह एक orgasmic बिजली भावना महसूस किया, उसकी पीठ तक यात्रा शुरू हुई. एक दूसरा आदमी एक समान अनुभव लेकिन धीरे अपने होने permeating उत्साह और खुशी की एक लहर के साथ वर्णन किया गया है. वह अपने सिर के ऊपर से उसकी रीढ़ की हड्डी के आधार से यात्रा, बिजली, लेकिन गर्म की तरह होने के रूप में बढ़ती ऊर्जा का वर्णन किया. उन्होंने कहा कि कम हुआ है, और वह अनुभव का विश्लेषण किया था.  शिव आर Jhawar की शारीरिक उपस्थिति में उसकी कुंडलिनी जागरण के अनुभव का वर्णन Muktananda .  कुंडलिनी की arousing एक और दिव्य ज्ञान प्राप्त करने का एक ही रास्ता होने के लिए कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है. स्व बोध दिव्य ज्ञान या के बराबर होने के लिए कहा है Gnosis या क्या एक ही बात करने के लिए राशि: आत्म - ज्ञान .  जागृति कुंडलिनी 'भीतर ज्ञान की जागृति' के रूप में ही पता चलता है और खुद के साथ लाता है की "शुद्ध खुशी, शुद्ध ज्ञान और शुद्ध प्यार."

अलग अलग दृष्टिकोण

सक्रिय और निष्क्रिय: कुंडलिनी जागरण के लिए दो व्यापक दृष्टिकोण हैं. सक्रिय दृष्टिकोण व्यवस्थित शारीरिक व्यायाम और एकाग्रता, दृश्य, की तकनीक शामिल है प्राणायाम (श्वास अभ्यास) और एक सक्षम शिक्षक के मार्गदर्शन में ध्यान. इन तकनीकों में योग की चार मुख्य शाखाओं में से किसी से आते हैं, और इस तरह के रूप में योग के कुछ रूपों, क्रिया योग , कुंडलिनी योग और सहज योग कुंडलिनी तकनीक पर जोर. निष्क्रिय दृष्टिकोण के बजाय एक जागृति करने के लिए सभी बाधाओं से जाने के बजाय सक्रिय रूप से कुंडलिनी जगाने की कोशिश कर देता है जहां समर्पण का एक रास्ता है. निष्क्रिय दृष्टिकोण का एक प्रमुख हिस्सा है Shaktipat एक व्यक्ति की कुंडलिनी पहले से ही अनुभव है जो किसी अन्य के द्वारा जागृत किया है. Shaktipat केवल अस्थायी रूप से कुंडलिनी उठाती है लेकिन छात्र एक आधार के रूप में उपयोग करने के लिए एक अनुभव देता है.  हठ योग के अनुसार हठ योग पाठ, Goraksasataka, या "Goraksa के सौ श्लोक", सहित कुछ हठ योग प्रथाओं फार्मूला बंधा , uddiyana बंधा, jalandhara बंधा और kumbhaka कुंडलिनी जगाने सकता है.  एक अन्य hathayoga पाठ, Khecarīvidyā, कहा गया है कि kechari मुद्रा कुंडलिनी बढ़ाने के लिए और विभिन्न दुकानों तक पहुंचने के लिए एक सक्षम बनाता अमृता बाद में शरीर में बाढ़, जो सिर में.

Shaktipat

आध्यात्मिक शिक्षक मेहर बाबा सक्रिय रूप से कुंडलिनी जगाने की कोशिश कर रहा है जब एक गुरु की आवश्यकता पर जोर: कुंडलिनी उच्च शरीर में एक अव्यक्त शक्ति है. जागा जब यह छह चक्रों या कार्यात्मक केन्द्रों के माध्यम से pierces और उन्हें सक्रिय. एक गुरु के बिना, कुंडलिनी की जागृति पथ पर बहुत दूर किसी भी एक नहीं ले सकते हैं, और इस तरह के अंधाधुंध या समय से पहले जागृति स्वयं को धोखे के साथ ही शक्तियों के दुरुपयोग के खतरों से भरा है. कुंडलिनी कम विमानों को पार करने के लिए जान - बूझकर आदमी सक्षम बनाता है और यह अंतत: यह एक हिस्सा है जो की सार्वभौमिक लौकिक सत्ता में विलीन हो जाती है, और भी कुंडलिनी के रूप में वर्णित समय पर है जो ... महत्वपूर्ण बात यह आगे की प्रगति सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं, जिसके बाद जागा कुंडलिनी, केवल एक निश्चित डिग्री तक मददगार है. यह एक संपूर्ण मास्टर की कृपा के लिए जरूरत के साथ बांटना नहीं कर सकते हैं.  कुंडलिनी जागरण के लिए तैयार है या अप्रस्तुत कुंडलिनी जागरण का अनुभव एक तैयार या अप्रस्तुत या तो जब हो. कर सकते हैं

तैयारी

हिंदू परंपरा के अनुसार, इस आध्यात्मिक ऊर्जा, शरीर की सावधान शुद्धि और मजबूत बनाने की अवधि और तंत्रिका तंत्र को एकीकृत करने में सक्षम होने के लिए आम तौर पर पहले से आवश्यक है.  योग और तंत्र कुंडलिनी एक से जागृत किया जा सकता है कि प्रस्ताव गुरु ( शिक्षक), लेकिन शरीर और आत्मा जैसे योग तपस्या से तैयार रहना चाहिए प्राणायाम , या सांस नियंत्रण, शारीरिक व्यायाम, दृश्य, और जप. पतंजलि आकांक्षी अनुशासन का एक उचित डिग्री के साथ सहज है यह सुनिश्चित करने के लिए एक फर्म नैतिक और नैतिक आधार पर बल दिया और अपनी पूरी क्षमता को जगाने के लिए एक गंभीर इरादा नहीं है. छात्र एक openhearted ढंग से मार्ग का अनुसरण करने की सलाह दी है.  परंपरागत रूप से लोगों को अपनी निष्क्रिय कुंडलिनी ऊर्जा को जगाने के लिए भारत में आश्रम की यात्रा करेंगे. विशिष्ट गतिविधियों नियमित रूप से ध्यान, मंत्र जप, आध्यात्मिक पढ़ाई के साथ ही इस तरह के रूप में एक शारीरिक आसन अभ्यास में शामिल होगा  डलिनी योग . हालांकि, कुंडलिनी अब व्यापक रूप से हिंदू धर्म के बाहर जाना जाता है और कई संस्कृतियों दुनिया भर में लोगों के भीतर कुंडलिनी ऊर्जा को जगाने के लिए अपने अपने तरीकों से बनाया है है. विवरण के बिना, लोगों की एक तेजी से बड़ा प्रतिशत यह ऊर्जा को जगाने के क्रम में निर्देश या नियम का एक अलग सेट का पालन करने के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, जिसका अर्थ है अनायास कुंडलिनी ऊर्जा awakenings सामना कर रहे हैं.

Unpreparedness

कुंडलिनी भी कोई स्पष्ट कारण या इतने पर दुर्घटनाओं के पास मौत के अनुभव, प्रसव, भावनात्मक आघात, चरम मानसिक तनाव, और के रूप में तीव्र निजी अनुभवों से चालू होने के लिए, अनायास जगा सकते हैं. कुछ सूत्रों का पिछले जन्मों में आध्यात्मिक अभ्यास करने के लिए संभवतः "भगवान की कृपा" को सहज awakenings विशेषता, या.  अप्रस्तुत या एक अच्छा शिक्षक की सहायता के बिना है, जो एक में एक सहज जागृति "कुंडलिनी संकट", "आध्यात्मिक आपातकाल" या "के रूप में कहा गया है जो एक अनुभव में परिणाम कर सकते हैं कुंडलिनी सिंड्रोम ". लक्षण कुंडलिनी जागरण के उन जैसे लगते हैं कहा जाता है लेकिन, अप्रिय भारी या नियंत्रण से बाहर के रूप में अनुभव कर रहे हैं. अप्रिय दुष्प्रभावों व्यवसायी सम्मान के साथ और एक संकीर्ण घमंडी ढंग से कुंडलिनी संपर्क नहीं किया है हो सकता है जब कहा जाता है. कुंडलिनी हमारे अपने dwarfs जो एक बेहद रचनात्मक बुद्धि के रूप में वर्णित किया गया है. यह अहंकार द्वारा चालाकी से किया जा सकता है जो एक ऊर्जा नहीं है. कुंडलिनी जागरण इसलिए आत्मसमर्पण की आवश्यकता है

शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव

शारीरिक प्रभाव, कुछ लोगों द्वारा कुंडलिनी जागरण का संकेत माना जाता है  लेकिन अवांछित साइड इफेक्ट एक समस्या की ओर इशारा करते के बजाय दूसरों के द्वारा प्रगति के रूप में वर्णित है.  आम एक जागृत कुंडलिनी के लक्षण या एक के लक्षण या तो निम्न हैं (सामान्यतः के रूप में संदर्भित एक जागृति कुंडलिनी के साथ जुड़े समस्या कुंडलिनी सिंड्रोम ): अनैच्छिक झटके, झटके, मिलाते हुए, खुजली, झुनझुनी, और उत्तेजना रेंगने, विशेष रूप से हाथ और पैर में
ऊर्जा जाती है या शरीर परिसंचारी बिजली की भावनाओं तीव्र गर्मी ऊर्जा के माध्यम से गुजर अनुभव होता है, खासकर के रूप (पसीना) या ठंड चक्रों उठना, प्राणायाम , आसन , मुद्राएं और bandhas समय पर दृष्टि या ध्वनियों एक विशेष चक्र के साथ जुड़े कम या इसके विपरीत चरम यौन इच्छा कभी कभी स्थिर या पूरे शरीर संभोग के एक राज्य के लिए अग्रणी कुछ दमित भावनाओं समय की छोटी या लंबी अवधि के लिए चेतन मन में प्रमुख बनने के साथ अवांछित और दमित भावनाओं या विचारों का भावनात्मक हलचल या सरफेसिंग.
खोपड़ी के अंदर सिरदर्द, माइग्रेन, या दबाव
बढ़ा रक्तचाप और अनियमित दिल की धड़कन
भावनात्मक अकड़ना
असामाजिक प्रवृत्तियों
मानस अवसाद या उन्माद के समय के साथ झूलों
शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में दर्द, विशेष रूप से पीठ और गर्दन
प्रकाश, ध्वनि, और स्पर्श करने के लिए संवेदनशीलता
ट्रान्स जैसे और चेतना की बदल राज्यों
बाधित सोने पैटर्न (अनिद्रा या oversleeping की अवधि)
भूख या ज्यादा खा की हानि
अनंत प्यार और सार्वभौमिक कनेक्टिविटी के परमानंद, भावनाओं, उत्कृष्ट जागरूकता
के बारे में रिपोर्ट सहज योग अभ्यास एक ठंडी हवा में परिणाम कर सकते हैं कि कुंडलिनी जागरण राज्य की तकनीक उंगलियों पर और साथ ही पर लगा fontanel हड्डी क्षेत्र.  एक अध्ययन की हथेलियों पर तापमान में एक बूंद मापा गया है इस तकनीक से उत्पन्न हाथ.

पश्चिमी व्याख्या

कुंडलिनी की एक बातचीत में माना जाता है सूक्ष्म शरीर के साथ चक्र ऊर्जा केन्द्रों और नाड़ियाँ चैनलों. प्रत्येक चक्र खास लक्षण होते हैं कहा जाता है  और उचित प्रशिक्षण के साथ, इन चक्रों के माध्यम से कुंडलिनी आगे बढ़ इन विशेषताओं व्यक्त या खोलने में मदद कर सकते हैं. सर जॉन वूडरोफ (कलम नाम आर्थर एवलॉन) पश्चिम के लिए कुंडलिनी की धारणा लाने के लिए पहले की गई थी. में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कलकत्ता , वह बन में रुचि Shaktism और हिंदू तंत्र . उनका का अनुवाद और दो ​​प्रमुख ग्रंथों पर कमेंटरी नाग पावर के रूप में प्रकाशित किया गया था. वूडरोफ अंग्रेजी भाषा में एक बेहतर शब्द की कमी के लिए "नाग पावर 'के रूप में कुंडलिनी प्रदान की गई लेकिन संस्कृत में" कुंडला "" coiled "का मतलब है.  कुंडलिनी के विचार के पश्चिमी जागरूकता से मजबूत बनाया गया था थियोसोफिकल सोसायटी मनोचिकित्सक द्वारा और ब्याज कार्ल जंग (1875-1961).  1932 में ज्यूरिख में मनोवैज्ञानिक क्लब को प्रस्तुत कुंडलिनी योग, पर जंग की संगोष्ठी, व्यापक रूप से पूर्वी सोचा की मनोवैज्ञानिक समझ में एक मील का पत्थर के रूप में माना गया है. कुंडलिनी योग उच्च चेतना के विकास के लिए एक मॉडल के साथ जंग प्रस्तुत किया है, और वह करने की प्रक्रिया के संदर्भ में अपने प्रतीकों व्याख्या individuation .  के संस्थापक Aetherius सोसायटी जॉर्ज किंग निर्माण के दौरान कुंडलिनी की अवधारणा का वर्णन करता है और जब एक "सकारात्मक samadhic योग ट्रान्स राज्य" में अपने पूरे जीवन में इस ऊर्जा कई बार अनुभव करने का दावा किया.  राजा के अनुसार, यह हमेशा विपरीत करने के लिए दिखावे के बावजूद, स्पाइनल कॉलम के माध्यम से कुंडलिनी का पूरा नियंत्रण धरती पर होने के लिए आदमी का एक ही कारण है, के लिए यह पूरा होता है, इस कक्षा और रहस्यमय परीक्षा में सबक पारित कर दिया है कि याद किया जाना चाहिए.
मानसिक केन्द्रों हकदार अपने व्याख्यान में - उनके महत्व और विकास वह कुंडलिनी की स्थापना और कैसे पीछे सिद्धांत का वर्णन इस निस्वार्थ सेवा के लिए समर्पित एक संतुलित जीवन के संदर्भ में सुरक्षित किया जा सकता है.
श्री अरविंद मेरी स्कॉट (खुद कुंडलिनी और अपनी शारीरिक आधार पर एक दिन बाद विद्वान जो है) के अनुसार, कुछ हद तक एक अलग दृष्टिकोण के साथ, वूडरोफ को कुंडलिनी समानांतर पर अन्य महान प्राधिकारी विद्वान थे और थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य थे.  पश्चिमी पाठकों के बीच कुंडलिनी की अवधारणा का एक और populariser था गोपी कृष्ण . उनकी आत्मकथा का हकदार है कुंडलिनी: मनुष्य में विकासवादी ऊर्जा .  उनके लेखन में पश्चिमी हित प्रभावित एक लेखक के अनुसार कुंडलिनी योग .  1930 के दशक में दो इतालवी विद्वानों, Tommaso Palamidessi और जूलियस Evola , फिर से व्याख्या करने के इरादे के साथ कई पुस्तकें प्रकाशित कीमिया योग के संदर्भ में.  उन कार्यों एक रहस्यमय विज्ञान के रूप में रसायन विद्या की आधुनिक व्याख्या पर एक प्रभाव पड़ा. उन कार्यों में, कुंडलिनी एक "आग्नेय शक्ति" या "टेढ़ा फायर" कहा जाता है. कुंडलिनी के विचार का इस्तेमाल किया है जो अन्य प्रसिद्ध आध्यात्मिक शिक्षकों शामिल अल्बर्ट रूडोल्फ (रूडी), हरभजन सिंह योगी , भगवान श्री रजनीश (ओशो), जॉर्ज गुरजिएफ , परमहंस योगानंद , शिवानंद राधा सरस्वती के एक अंग्रेजी भाषा गाइड का उत्पादन जो कुंडलिनी योग विधियों, Muktananda , भगवान नित्यानंद , निर्मला श्रीवास्तव , और Samael Aun Weor .

नई आयु

कुंडलिनी संदर्भ की एक संख्या में पाया जा सकता है नए युग प्रस्तुतियों, और कई द्वारा अपनाया गया है कि एक नारा का शब्द है नए धार्मिक आंदोलनों .

मनोरोग

हाल ही में, वहाँ के मनोवैज्ञानिक प्रभाव का अध्ययन करने के लिए चिकित्सा समुदाय के भीतर एक बढ़ती रुचि किया गया है ध्यान , और इन अध्ययनों में से कुछ उनके नैदानिक ​​सेटिंग करने के लिए कुंडलिनी योग के अनुशासन लागू किया है.  कुछ आधुनिक प्रयोगात्मक अनुसंधान स्थापित करना चाहता है कुंडलिनी अभ्यास और के विचारों के बीच लिंक विल्हेम रेक और उनके अनुयायियों. f पूर्वी साधना को लोकप्रिय बनाने पश्चिम में मनोवैज्ञानिक समस्याओं के साथ संबद्ध किया गया है. मनोरोग साहित्य "पूर्वी साधना की बाढ़ और 1960 के दशक में ध्यान शुरू करने की बढ़ती लोकप्रियता के बाद से, कई लोगों को मनोवैज्ञानिक कठिनाइयों की एक किस्म का अनुभव किया है, या तो अनायास गहन साधना में लगे हुए हैं या देर के नोट कि".  मनोवैज्ञानिक बीच गहन आध्यात्मिक अभ्यास के साथ जुड़े कठिनाइयों हम. "कुंडलिनी जागृति", "योग परंपरा में वर्णित एक जटिल फिजियो psychospiritual परिवर्तनकारी प्रक्रिया" लगता है  के क्षेत्र में शोधकर्ताओं मनोविज्ञान ,  और के पास मौत के अध्ययन  संवेदी की एक जटिल पैटर्न का वर्णन किया है, मोटर, कुंडलिनी की अवधारणा के साथ जुड़े मानसिक और भावात्मक लक्षण, कभी कभी कहा जाता कुंडलिनी सिंड्रोम .
मनोचिकित्सक कार्ल जंग के अनुसार, "... कुंडलिनी की अवधारणा हमें केवल एक ही उपयोग के लिए, कि बेहोश साथ अपने अनुभवों का वर्णन करने के लिए, है है ..."  कुंडलिनी जागरण के साथ जुड़े आध्यात्मिक आपात स्थिति के बीच भेदभाव संस्कृति से परिचित नहीं हैं जो मनोचिकित्सकों द्वारा एक तीव्र मानसिक प्रकरण के रूप में देखा जा सकता है. कुछ योग प्रथाओं के साथ होता है कि वृद्धि की P300 आयाम के जैविक परिवर्तन तीव्र मानसिकता को जन्म दे सकती है. योगिक तकनीक से जैविक परिवर्तन ऐसी प्रतिक्रियाओं के खिलाफ लोगों को आगाह करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.

कुंडलिनी योग

कुंडलिनी योग ( संस्कृत भी लाया योग के रूप में जाना जाता है कुंडलिनी योग कुण्डलिनी योग), एक है योग का स्कूल . द्वारा एक 1935 ग्रंथ के आधार पर शिवानंद सरस्वती , कुंडलिनी योग से प्रभावित था तंत्र और Shakta हिंदू धर्म के स्कूलों.
कुंडलिनी योग जागरण पर एक ध्यान के माध्यम से अपने नाम निकला कुंडलिनी ऊर्जा के नियमित अभ्यास के माध्यम से ध्यान , प्राणायाम , जप मंत्र और योग आसन . "जागरूकता का योग" चिकित्सकों द्वारा कहा जाता है, यह एक की रचनात्मक आध्यात्मिक संभावित खेती करने के लिए "का उद्देश्य , मूल्यों की रक्षा सच बोलने, और दूसरों की सेवा और चंगा करने की जरूरत दया और चेतना पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मानव. "
इतिहास

नाम , 20 वीं सदी में "कुंडलिनी योग" के रूप में जाना जाता है इस परंपरा को अजीब एक तकनीकी शब्द के बाद, अन्यथा ज्ञात किया गया है बन गया है क्या जरूरत स्पष्टीकरण संस्कृत अवधि लाया "विघटन, विलुप्त होने" से, लाया योग (लय योग) के रूप में]. संस्कृत विशेषण kuṇḍalin "परिपत्र, कुंडलाकार" का मतलब है. यह ("coiled" अर्थ में "के गठन ringlets" के रूप में) "एक साँप" के लिए एक संज्ञा के रूप में 12 वीं सदी में होती है Rajatarangini क्रॉनिकल (I.2). कुंदा, जिसका अर्थ है 'कटोरा, पानी के साथ एक संज्ञा पॉट "एक का नाम के रूप में पाया जाता है नगा में महाभारत 1.4828. स्त्री कुण्डली शास्त्रीय संस्कृत में "(एक रस्सी के) अंगूठी, कंगन, कुंडल" का अर्थ है, और एक "नागिन की तरह" के नाम के रूप में प्रयोग किया जाता है शक्ति में तांत्रिक के रूप में जल्दी सी के रूप में. 11 वीं सदी, Śaradatilaka में.  इस अवधारणा में एक तकनीकी शब्द के रूप में kuṇḍalniī के रूप में अपनाया है हठ योग 15 वीं सदी में और व्यापक रूप में इस्तेमाल किया जाता है योग उपनिषद 16 वीं सदी से.

हठ योग

योग कुंडलिनी उपनिषद में सूचीबद्ध है Muktika 108 उपनिषदों की कैनन. इस कैनन वर्ष 1656 में तय किया गया था, यह योग कुंडलिनी उपनिषद हाल ही में 17 वीं सदी की पहली छमाही में संकलित किया गया है कि जाना जाता है. ऐसे बैठे Cakra-nirūpana और पादुका-pañcaka रूप में तांत्रिक योग में एक तकनीकी शब्द के रूप में कुंडलिनी इलाज जो अन्य संस्कृत ग्रंथों, कर के रूप में 16 वीं सदी के लिए उपनिषद अधिक होने की संभावना की तारीख,. इन बाद ग्रंथों द्वारा 1919 में अनुवाद किया गया जॉन वूडरोफ नाग पावर के रूप में: इस पुस्तक में तांत्रिक और Shaktic योग का राज, वह भी लाया योग के रूप में जाना जाता तांत्रिक योग का एक विशेष रूप है, के रूप में "कुंडलिनी योग" की पहचान करने के लिए पहली बार था. योग कुंडलिनी और Yogatattva बारीकी से स्कूल से ग्रंथों संबंधित हैं हठ योग . वे दोनों पर भारी आकर्षित योग याज्ञवल्क्य (सी. 13 वीं सदी),  मूलभूत रूप में करता है हठयोग प्रदीपिका . वे की एक प्रवृत्ति का हिस्सा हैं समन्वयता 15 वीं और 16 वीं शताब्दी के दौरान हिंदू दर्शन के अन्य स्कूलों के साथ योग की परंपरा के संयोजन. योग कुंडलिनी उपनिषद ही तीन छोटे अध्यायों के होते हैं, यह बताते हुए कि से शुरू होती है Chitta (चेतना) द्वारा नियंत्रित किया जाता है वायु (प्राण) , और प्राण मध्यम खाद्य, मुद्राओं और शक्ति-चला (I.1 -2) द्वारा नियंत्रित किया जाता है. I.3-6 वर्सेज उदारवादी भोजन और अवधारणा की अवधारणाओं को समझाने, और कविता I.7 चर्चा के अंतर्गत शक्ति के नाम के रूप में कुंडलिनी का परिचय:
I.7. (उपर्युक्त) Sakti केवल कुंडलिनी है. एक बुद्धिमान व्यक्ति भौंहों के बीच करने के लिए अपनी जगह (ऊपर अर्थात, नाभि,) से इसे लेना चाहिए. इस Sakti-चला जाता है.I.8. यह अभ्यास में, दो बातें, सरस्वती-Chalana और प्राण (सांस) के संयम जरूरी हैं. फिर अभ्यास के माध्यम से, (सर्पिल है) कुंडलिनी सीधा हो जाता है. "

आधुनिक स्वागत

स्वामी Nigamananda (डी. 1935) योग की एक अलग स्कूल के रूप में "कुंडलिनी योग" के उद्भव का रास्ता साफ हो वह हठ योग का हिस्सा नहीं था जोर देकर जो लाया योग का एक रूप में पढ़ाया जाता है.
यह आज पढ़ाया जा रहा है के रूप में "कुंडलिनी योग" द्वारा ग्रंथ कुंडलिनी योग पर आधारित है शिवानंद सरस्वती 1935 में प्रकाशित,. स्वामी शिवानंद (1935) लाया योग के एक भाग के रूप में "कुंडलिनी योग" की शुरुआत की.  स्पष्टीकरण की जरूरत ]  के साथ मिलकर की अन्य धाराओं के साथ हिंदू पुनरुत्थानवाद और नव हिंदू धर्म , कुंडलिनी योग 1980 के दशक के पश्चिमी करने के लिए 1960 के दशक में लोकप्रिय बन counterculture . यह द्वारा लोकप्रिय था हरभजन सिंह योगी "की स्थापना की है जो स्वस्थ, सुखी, पवित्र संगठन 1969 में "(3HO). सिंह ने 1972 में वाशिंगटन, डीसी में दो लंबे समय हेरोइन नशेड़ी के साथ एक पायलट कार्यक्रम का शुभारंभ किया,  और 1973 में Tucson, एरिजोना में शुरू किया गया था "3HO SuperHealth" के नाम के तहत एक दवा उपचार केन्द्र खोला.

सिद्धांत और कार्यप्रणाली

कुंडलिनी "एक के लिए शब्द है आध्यात्मिक ऊर्जा या जीवन शक्ति एक coiled अप नागिन के रूप में की अवधारणा रीढ़ के आधार पर स्थित ". कुंडलिनी योग का अभ्यास 6 के माध्यम से अपने कुंडलित आधार से सो कुंडलिनी शक्ति को जगाने के लिए माना जाता है चक्रों , और 7 वें चक्र, या मुकुट घुसना. यह ऊर्जा आईडीए (बाएं), पिंगला (दाएं) और केंद्रीय, या सुषुम्ना के साथ यात्रा करने के लिए कहा जाता है कि नदी -. शरीर में प्राणिक ऊर्जा का मुख्य चैनल कुंडलिनी ऊर्जा तकनीकी रूप से जब योग साँस लेने के दौरान छिड़ किया जा रहा है के रूप में समझाया है प्राण और अपान यह शुरू में मस्तिष्क के उच्चतर केन्द्रों के लिए रीढ़ की हड्डी में ऊपर यात्रा से पहले 1 और 2 चक्रों से नीचे चला बात जिस पर 3 चक्र (नौसेना केंद्र) में मिश्रणों के बीच संबंध - गोल्डन कॉर्ड को सक्रिय करने के लिए पीयूष और पीनियल ग्रंथियों -. और 7 चक्रों घुसना
उधार लेने और कई अलग अलग दृष्टिकोण से उच्चतम रूपों को एकीकृत, कुंडलिनी योग का एक सप्ताह में तीन गुना दृष्टिकोण के रूप में समझा जा सकता है भक्ति योग भक्ति, के लिए शक्ति योग शक्ति के लिए, और राजा योग मानसिक शक्ति और नियंत्रण के लिए. के दैनिक अभ्यास के माध्यम से अपने उद्देश्य kriyas में और ध्यान साधना उनकी कुल रचनात्मक क्षमता को प्राप्त करने के लिए मनुष्य के लिए मानव चेतना का एक व्यावहारिक प्रौद्योगिकी वर्णित हैं.

अभ्यास

का अभ्यास kriyas कुंडलिनी योग में और ध्यान शरीर, तैयार करने के लिए पूरा शरीर जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार कर रहे हैं तंत्रिका तंत्र कुंडलिनी बढ़ती ऊर्जा को संभालने के लिए, और दिमाग. शारीरिक मुद्राओं का बहुमत नाभि गतिविधि, रीढ़ की गतिविधि, और शरीर अंक और शिरोबिंदु के चुनिंदा दबाव पर ध्यान केंद्रित. सांस काम और के आवेदन bandhas (3 योग ताले) उच्च ऊर्जावान केन्द्रों के लिए कम केंद्रों से कुंडलिनी ऊर्जा का प्रवाह जारी है, प्रत्यक्ष और नियंत्रित करने के लिए सहायता.  कुंडलिनी योग, श्वास वैकल्पिक नथना के एक साधारण श्वास तकनीक (बाएं नथुने, सही नथना) के कई kriyas, ध्यान और प्रथाओं के साथ कुंडलिनी ऊर्जा को जगाने में मदद करने के लिए, नाड़ियाँ, या सूक्ष्म चैनलों और रास्ते को साफ करने के लिए एक विधि के रूप में पढ़ाया जा रहा है. Sovatsky (1998) कुंडलिनी योग की अपनी व्याख्या में एक विकास है और विकासवादी दृष्टिकोण adapts. यही कारण है कि वह मनोवैज्ञानिक आध्यात्मिक विकास और शारीरिक परिपक्वता के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में कुंडलिनी योग की व्याख्या है. योग की इस व्याख्या के अनुसार, शरीर, जिनमें से कोई भी अभ्यास खींच मात्र माना जाना चाहिए, [...] अधिक से अधिक परिपक्वता में ही रखता है.

चिकित्सा अनुसंधान

मनोरोग साहित्य "पूर्वी साधना की बाढ़ और 1960 के दशक में ध्यान शुरू करने की बढ़ती लोकप्रियता के बाद से कई लोगों को मनोवैज्ञानिक कठिनाइयों की एक किस्म का अनुभव किया है, या तो अनायास गहन साधना में लगे हुए हैं या देर के नोट कि".  मनोवैज्ञानिक से कुछ गहन आध्यात्मिक अभ्यास के साथ जुड़े कठिनाइयों "कुंडलिनी जागृति", "योग परंपरा में वर्णित एक जटिल फिजियो psychospiritual परिवर्तनकारी प्रक्रिया" होने का दावा कर रहे हैं. के क्षेत्र में राइटर्स के पास मौत के अध्ययन और "के मनोविज्ञान "एक" का वर्णन किया है कुंडलिनी सिंड्रोम ". वेंकटेश एट अल. (1997)  बारह कुंडलिनी (अध्ययन चक्र का प्रयोग करके) साधक, घटना चेतना इन्वेंटरी की. उन्होंने ध्यान का अभ्यास "चेतना के phenomenological अनुभवों में संरचनात्मक और साथ ही तीव्रता में परिवर्तन का उत्पादन करने के लिए प्रकट होता है कि" पाया. Lazar एट अल. (2000)  , "वे निष्क्रिय उनकी सांस लेने मनाया और चुपचाप वाक्यांश दोहराया जिसमें कुंडलिनी योग ध्यान की एक सरल फार्म inhalations और exhalations दौरान 'wahe गुरु' के दौरान 'वियतनाम शनि'" प्रदर्शन विषयों के दिमाग मनाया और पाया मस्तिष्क की कि कई क्षेत्रों छूट में शामिल विशेष रूप से शामिल लोगों और ध्यान बनाए रखने के थे.

उद्धरण

"कुंडलिनी योग सक्रिय और निष्क्रिय होते आसन आधारित kriyas , प्राणायाम , और ध्यान पूरे शरीर प्रणाली (लक्ष्य जो तंत्रिका तंत्र , ग्रंथियों , मानसिक संकायों, चक्रों जागरूकता, चेतना और आध्यात्मिक शक्ति का विकास करने के लिए). " - योगी भजन

ध्यान में होने वाले अनुभव

साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं. अनेक साधकों के ध्यान में होने वाले अनुभव एकत्रित कर यहाँ वर्णन कर रहे हैं ताकि नए साधक अपनी साधना में अपनी साधना में यदि उन अनुभवों को अनुभव करते हों तो वे अपनी साधना की प्रगति, स्थिति व बाधाओं को ठीक प्रकार से जान सकें और स्थिति व परिस्थिति के अनुरूप निर्णय ले सकें.

१. भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है. फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देते हैं. एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है. इस प्रकार यह क्रम बहुत देर तक चलता रहता है. साधक यह सोचता है इक यह क्या है, इसका अर्थ क्या है ? इस प्रकार दिखने वाला नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है. नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है. पीला रंग आत्मा का प्रकाश है जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है.

इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है. इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्षा दीखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं. साथ ही हमारे मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे हम असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेते हैं.

२. कुण्डलिनी जागरण का अनुभव :-

कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं. अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है. यह कुदालिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शारीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है. जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं. परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुदा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है. यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है. यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है.

जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है. यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है. फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है. जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है. इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग जाता है. इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है. कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं.

३. कुण्डलिनी जागरण के लक्षण :

कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं : ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ऐसा लगना, मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है.

४. एक से अधिक शरीरों का अनुभव होना :

कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है. यानि एक तो यह स्थूल शारीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर. तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है. परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है.

एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है. दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है तीसरा शरीर कारण शारीर कहलाता है. सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शारीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि. परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है. तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं. मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है. इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते  है

गुरु गोरखनाथ


गोरखनाथ' या गोरक्षनाथ जी महाराज ११वी से १२वी शताब्दी के नाथ योगी थे। गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर मे स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पडा है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यही दिखे थें। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मुर्ती भी है। यहाँ हर साल वैशाख पुर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते है और यहाँ मेला भी लगता है।

रचनाएँ

डॉ० बड़थ्वाल की खोज में निम्नलिखित ४० पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है। डॉ० बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम १४ ग्रंथों को असंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चौंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परंतु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है। पुस्तकें ये हैं-
1. सबदी
2. पद
3.शिष्यादर्शन
4. प्राण सांकली
5. नरवै बोध
6. आत्मबोध
7. अभय मात्रा जोग
8. पंद्रह तिथि
9. सप्तवार
10. मंछिद्र गोरख बोध
11. रोमावली
12. ग्यान तिलक
13. ग्यान चौंतीसा
14 पंचमात्रा
15. गोरखगणेश गोष्ठी
16 गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध)
17 महादेव गोरखगुष्टि
18. शिष्ट पुराण
19. दया बोध
20 जाति भौंरावली (छंद गोरख)
21. नवग्रह
22. नवरात्र
23 अष्टपारछ्या
24 रह रास
25 ग्यान माला
26 आत्मबोध (2)
27. व्रत
28. निरंजन पुराण
29. गोरख वचन
30. इंद्री देवता
31 मूलगर्भावली
32. खाणीवाणी
33. गोरखसत
34. अष्टमुद्रा
35. चौबीस सिध
36 षडक्षरी
37. पंच अग्नि
38 अष्ट चक्र
39 अवलि सिलूक
40. काफिर बोध

गुरु गोरखनाथ का समय

मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में इस देश में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालंधरनाथ और कृष्णपाद के संबंध में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं। गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसायिक थे; दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे; तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे, फिर संयोगवश ऐसे एक आचार में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध संसर्ग मुख्य बात थी - संभवतः यह वामाचारी साधना थी;-चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता असानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।

(1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज़ में डॉ० प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।

(2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चचित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्त्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविभूर्त हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।

(3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86।1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।

(4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्र गोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।

(5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहरता है।

(6) कंथड़ी नामक एक सिद्ध के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चौलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।
इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज़’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-

(1) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चौदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।

(2) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।

(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।

(4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1200 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है। परंतु ऊपर के प्रमाणों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता

नाथ सम्प्रदाय

प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं। इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं। इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं:-

प्रारम्भिक दस नाथ

आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ। इनके बारह शिष्य थे जो इस क्रम में है- नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ।

चौरासी और नौ नाथ परम्परा

आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे। सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे। उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चौरासी मानी गई है।

नौ नाथ गुरु :

1. मच्छेंद्रनाथ 2. गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ।

इसके अलावा ये भी हैं:

1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ। ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। बाबा शिलनाथ, दादाधूनी वाले, गजानन महाराज, गोगा नाथ, पंढरीनाथ और साईं बाब को भी नाथ परंपरा का माना जाता है। उल्लेखनीय है कि भगवान दत्तात्रेय को वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदाय का माना जाता है, क्योंकि उनकी भी नाथों में गणना की जाती है। भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं।

नाथ साहित्य

सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं।  इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है। गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४० बताई जाती है किन्तु डा. बड़्थ्याल ने केवल १४ रचनाएं ही उनके द्वारा रचित मानी है जिसका संकलन ‘गोरखबानी’ मे किया गया है।
 जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’ गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।